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बचपन में अंकगणित को हल करते समय मेरे पिताजी कहा करते थे कि पहले प्रश्न को अच्छी तरह से पढ और समझ लो और बाद में ही उसे हल करने का चेष्टा करना. उनकी इस सूचना का मतलब धीरे धीरे समझने लगा. प्रश्न को ध्यानपूर्वक एवं स्पष्टता से पढने और समझने के दौरान ही प्रश्न को हल करने का रास्ता (तरीका) बिलकुल साफ साफ दिखाई देता और केवल कुछ जोड़-घटाने..गुणा-भाग करते ही हल निकल आता.
अपने आतंरिक जीवन-प्रश्नों के हल भी इसीतरह स्पष्ट और पूर्णगत (वस्तुगत और व्यक्तिगत समग्रता) आत्म-अवलोकन से हल होते है..इसबात को न समझपानेवाले …. हल की खोज में बाहर दौड़ लगाते फिरते हैं… इस गुरु से उस गुरु तक, इस उपाय से उस उपाय तक, इस पूजा से उस पूजा तक, इस विधि से उस विधि तक …… और पता नहीं क्या क्या और कैसी कैसी बातों का बोझ ढोते फिरते हैं. हल पाने की उन्हें इतनी जल्दी और हडबडाहट (इच्छा,लालसा,भय,चिंता…) रहती है कि उनसे जो भी करने को किसी ने कहा हो, उसे बिना किसी संदेह के करने के लिए तैयार हो जाते हैं … ऐसी दुर्बल असंदिग्धता को ही ‘श्रद्धा’ मान लेते हुए वे गलत रास्ते पर और भी आगे निकल जाते हैं.
-अरुण
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