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सांसदों पर जन-अंकुश की जरूरत

Man ki laharen
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संसद के शीतकालीन सत्र की शुरुवात बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण रही है. संसद को ठप करना और उसकी जिम्मदारी सामनेवाले पक्ष पर थोंपना सांसदों के पक्षीय अहंकार की एक नियमित अभिव्यक्ति बन चुकी है. सभी पक्ष अपना अपना वर्चस्व सिद्ध करने में लगे हुए हैं. सभी कहते हैं कि उनकी यह कृति जनता के हित में की जा रही है.

मतलब यह कि ये लोग अब राजनीतिज्ञों से ही नहीं बल्कि  जनता से भी राजनीति कर रहें हैं. जनता भले ही चुप हो मगर अच्छी तरह समझती है कि इसमें सांसदों का अपना राजनितिक स्वार्थ कितना और जनता का हित कितना है.

दलीलें तो कृति करने से पहले है रच दी  जाती हैं. सभी पक्षों के पास अपने राजनैतिक दांवपेंचों के समर्थन में पर्याप्त दलीलें तैयार ही रहती हैं. किसी के पास भी, उनके इस आचरण के कारण,  जनता का नुकसान कैसे हो रहा है, यह सोचने की संवेदनशीलता नहीं है.

अपने को जनता का सेवक कहलानेवाले इन लोक-प्रतिनिधियों पर (जनता के) किसी न किसी अंकुश की अब जरूरत महसूस होने लगी है. अगर यह ऐसे ही चलता रहा तो रामलीला मैदान पर

चलने वाली तथाकथित पंचायतें ही जनता को अधिक आकर्षित करने लगेंगी. निर्वाचित सांसदों और संसदों का अस्तित्व महज एक औपचारिक कर्मकांड बनकर रह जाएगा. जनता को देखने के लिए मैदानों के फैसले और टीवी चैनलों की बहसें ही शेष बचेंगी. लोकसभा और राज्यसभा की बैठकें बुलाई तो जाएंगी पर केवल स्थगित होने के लिए ही.

-अरुण

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